रविवार, 25 सितंबर 2016

संवेदना का ह्रास

निचले तबक़े के आदमियों से दूर होती संवेदना बहुत चिंता का विषय है, दो तीन दिनों से झारखंड के एक सरकारी अस्पताल में, मरीज़ को फर्श पर भोजन परोसने जैसी संवेदनशील ख़बर, चर्चा में बहस का विषय है।

कौन कौन दोषी हो सकते हैं, इस घटना को अंजाम देने के लिए? सत्ता, पूंजीपति, व्यवस्था, अस्पताल की ऐडमिनिस्ट्रेटिव डिपार्टमेंट, इस घटना में सिर्फ आसमान में उड़ने वाले ही नहीं शामिल हैं, बल्कि ज़मीन से जुड़े लोग भी शामिल हैं, हम उन्हें अनदेखा कैसे कर सकते हैं? खाना परोसने वाला कोई पूंजीपति या राजनीतिज्ञ नहीं था, एक अदना सा कर्मचारी है, अस्पताल में डी ग्रेड कर्मचारियों की तनख़्वाह होती ही कितनी है, बुनियादी सुविधाओं को पूरा करने मात्र ।  मतलब कि अस्पताल में जिस व्यक्ति ने निर्मम घटना को अंजाम दिया, वो एक आम आदमी है। बहुत भयावह स्थिति है, एक आम आदमी के भीतर से संवेदना, जिम्मेदारी का नष्ट हो जाना। फिर कटघरे में सिर्फ सत्तापक्ष और पूंजीवादी व्यवस्था ही क्यों?

साहित्यकार, लेखक, पत्रकार, अक्सर अपनी रचनाओं के माध्यम से,  समाज के उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय लोगों में, संवेदनाओं के नष्ट होने की दुहाई देते रहते हैं, पूंजीपतियों और नेताओं के व्यवहार पर टिप्पणी करते रहते हैं, व्यवस्था का विरोध करते रहते हैं, आम आदमी की स्थितियों- प्रस्थितियों , मज़बूरीयों का वर्णन करते हैं, लेकिन आज आम आदमी की भी संवेदना नष्ट हो गई है, वो भी दोषियों की श्रेणी में खड़ा है, तो उसे कटघरे में क्यों नहीं खड़ा करना चाहिए?

इस घटना में अगर सत्ता, व्यवस्था, पूंजीपति, अस्पताल का ऐडमिनिस्ट्रेटिव, डिपार्टमेंट जितना दोषी है उतना ही दोषी वह आम आदमी कहलाने वाला कर्मचारी भी है। और कहीं न कहीं सोशल मीडिया और बिकी हुई मिडिया भी, जिसने तस्वीर खींच कर सोशल मीडिया पर साझा की, सबसे बड़ा  असंवेदनशील व्यक्ति तो वही है, जिसने तस्वीर खींच कर पूरे हिन्दुस्तान में संप्रेषित करने की जहमत की, लेकिन उस खाना परोसते हुए कर्मचारी का हाथ नहीं पकड़ा, उसके मुँह पर तमाचा नहीं मारा। इतनी ही संवेदना थी तो पहले उस मरीज़ को प्लेट में खाना मुहैया करवाता, अस्पताल वालों ने नहीं दिया तो, वही अपने केमरा चलाने से पहले, उस मरीज़ को सम्मान पूर्वक भोजन करा देता, उसके बाद मिडिया और सोशल मीडिया की रोटियां सेकने का इंतजाम करता।

मरीज़ कितना विवश था कि, उसने विरोध नहीं किया, खाना खा लिया फर्श से ही उठाकर। उसके परिवार वाले कहाँ थे? क्या वो घर से ज़रूरी वस्तुएं मरीज़ के लिए नहीं ला सकते थे? या फिर  इस घटना का दूसरा पहलू यह है कि, वो मरीज़ अकेला ही था अस्पताल में भर्ती, और उसके परिवार के सदस्य उसके साथ अस्पताल में रहने के लिए असमर्थ होंगे, किन्हीं कारणों से। कैसी - कैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है एक ग़रीब आदमी को। जिसकी ओर सत्ता का ध्यान कभी केंद्रित नहीं होता, वर्तमान सत्ता से क़ितनी उम्मीदें थीं जनता को, लेकिन क्या हुआ, सरकार ने अपने वादे पूरे किये? यह छोटी-छोटी बुनियादी ज़रूरतें तो पूरी की नहीं, और मेहंगी दँवाईयों की सब्सिडी भी ख़त्म कर दी।

बुलेट ट्रेन का ही तोहफा मिलेगा क्या इन पाँच सालों में? शिक्षा- स्वास्थ्य, बेरोजगारी, प्रदूषण, ग़रीबी जैसी समस्याओं पर वर्तमान सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता है? बीफ, कश्मीर, पाकिस्तान जैसे संवेदनशील मुद्दे मिडिया में उछलते रहते हैं, सरकार न तो ग़रीब मज़दूर के बारे में सोच रही है, और न ही दलितों- मुसलमानों, स्त्रियों के बारे में कुछ कर रही है। फिर कौन खुश हैं, संतुष्ट हैं इस सरकार से। हक़ीक़त यह है कि न कोई खुश हैं, और न ही कोई सुरक्षित हैं।

पिछले साठ सालों में कॉग्रेस ने राज किया, उसने भी इस बुनियादी ढांचे में कोई सुधार नहीं किया, और आज विपक्ष में बैठकर चिल्ला रही है। और बीजेपी पिछले साठ सालों से विपक्ष में रहकर चिल्ला रही थी, आज सत्ता में है। यह हिन्दुस्तान की बहुत बदकिस्मती है कि, उसके पास बड़े राष्ट्रीय स्तर की दो पार्टियां हैं कॉग्रेस और बीजेपी, यही सत्तापक्ष और विपक्ष में रहती हैं, और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालती रहती हैं। और तीसरा विकल्प मज़बूत नहीं होता।

-मेहजबीं

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