शुक्रवार, 16 सितंबर 2016
परिवर्तन में साहित्य का योगदान
मेहजबीं
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भारतेंदू जी, और दिव्वेदी युग की ज्यादा तर रचनाएं.. आजादी के लिए लिखी गयी.. सोई हुई जनता को जगाने के लिए लिखी गई.. और उस समय के सहित्य से प्रभावित होकर जनता जागी भी.. और आजादी हासिल की.. ये मार्क्सवादी, समाजवादी, गांधीवादी, अस्तित्ववादी,राष्ट्रवादी विचार क्या हैं.. क्या कोई अनपढ़ और प्रोफेशनल शिक्षा प्राप्त इन विचारों को समझता है.. हमारे हिन्दी भाषा के, और अन्य भाषाओं या, बोलियों के साहितकार इन विचारों से प्रभावित हुए हैं.. और अपनी रचनाओं में इन विचारों को व्यक्त किया है। लेबर डे मनाया जाता है पहली मई को.. क्या लेबर्स की जीत में साहित्यकार शामिल नहीं हैं? मेरे ख्याल से तो हैं.. बल्कि इन साहित्यकारों के विचारों को फिल्मकारो ने अपनी फिल्मों में भी बाखूबी ब्यां किया है। देवदास, मुगले आजम, सामंती व्यवस्था के मुँह पर करारा चांटा है.. अमिताभ बच्चन की कुली, नमक हराम, पूंजीवादी व्यवस्था पर.. आखिर क्यों, डोर, लज्जा, मंडी, अर्थ, फेमिनिजम से जुड़े मुद्दों पर सवाल उठाती है.. रंग दे बसंती सीधा सिस्टम पर सवाल उठाती है.. क्या आजादी के बाद सिस्टम में कुछ बदलाव आया है, या सिर्फ चेहरे ही बदलें हैं... बॉलीवूड ने साहित्यिक रचनाओं पर भी फिल्में बनाई हैं... जैसे की फणीश्वर नाथ रेणु जी की कहानी 'तीसरी कसम' पर फिल्म बनी हैं.. उन्हीं के उपन्यास 'मैला आंचल' पर आधारित नाटक बना.. 'राही मासूम' रज़ा के उपन्यास 'नीम का पेड़' पर भी नाटक बना 'उमराव जान' भी उपन्यास पर ही आधारित है... थ्री इडियट्स भी उपन्यास से ही प्रभावित होकर बनाई गई है.. मन्नू भंडारी जी की कहानी 'यही सच है' पर आधारित फिल्म रजनी गंद्धा बनी.. 'आपका बंटी' उपन्यास पर भी फिल्म बनी.. कमलेश्वर जी के उपन्यास 'काली आंधी' पर फिल्म आंधी बनी ये सारी फिल्में फिल्मकारों ने इन साहित्यिक रचनाओं से प्रभावित होकर ही बनाई हैं.. बदलाव तो होता ही है.. प्रोफेशनल शिक्षा प्राप्त करने वाले सिर्फ पैसा कमाने की मशीन बनतें हैं.. और साहित्य की शिक्षा प्राप्त करने वाले भले ही कम कमाएं, लेकिन उनके विचार जरूर साफ सुथरे हो जाते हैं...
साहित्य से सुधार हुआ है इस बात को तो झुटलाया नहीं जा सकता है.. लेकिन कुछ पहलू ऐसे भी हैं जहां जितना सुधार होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ है.. मसलन सिस्टम में, बदलाव न होने के बराबर ही है.. जिन परेशानियों से परेशान होकर, और उनसे राहत पाने के लिए भारत की जनता ने, आजादी की लड़ाई लड़ी, और आजादी हासिल की, लेकिन क्या आजादी के बाद भारत की जनता को शकून मिला? राहत मिली? सिस्टम में बदलाव आया? उतना नहीं आया जितना की जनता ने सोचा था.. सिर्फ चेहरे ही तो बदले हैं.. बुनियादी सवाल तो आज भी वहीं खड़े हैं.. हम कितने आधुनिक हुए हैं? और किस रूप में हुए हैं? आज औरत भूमंडलीकरण और बाज़ार के शौषण का शिकार है, चक्रव्यूह में फंसी है, फिल्मों में, विज्ञापनों में, औरत को नंगा कर दिया है... सामंती व्यवस्था एक नए तरीके से औरत के शरीर को उपयोग में ले रही है... इसमें पूंजीवादी व्यवस्था भी जिम्मेदार है... क्या यही है आधुनिकीकरण? औरत की आजादी? औरत की इकनॉमिक्ल पावर अभी भी वहीं है... जहाँ थी औरत अभी भी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में मध्यकालीन सोच को ढो रही है.. आधुनिकीकरण के नाम पर हम सिर्फ भौतिक सुख का ही लाभ उठा रहे हैं.. विचारों में अभी भी मध्यकालीन सोच को ढो रहे हैं... बिरादरीवाद अभी भी वहीं है.. शादी जैसे मसलों पर बिरादरीवाद में कोई खास सुधार नहीं हुआ है.. हालाक़ी इन समस्याओं पर साहित्यकार लगातार लिख रहे हैं.. सवाल उठा रहे हैं... लेकिन भारत की 80% जनसंख्या ढीट है जो अभी भी बिरादरीवाद में फंसी है.. उस जकड़ता से बाहर आना ही नहीं चाहती.. कुछ हद तक टीवी पर होने वाले नाटककार भी जिम्मेदार हैं.. जो अब साहित्य से कट गए हैं.. बुनियादी सवालों से हटकर पता नहीं कौन सी दुनिया में दर्शकों को ले जा रहे हैं.. उन नाटकों में हम कहां खड़े हैं? उन नाटकों में न कहीं स्कूल है, न कॉलेज है, न युनिवर्सिटी है, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, कुछ भी नहीं उन नाटकों में.. अगर वो नाटक अच्छे साहित्य की स्क्रिप्ट पर आधारित हो जाएं, तो शायद और अधिक सुधार हो सके.. बुनियादी ढांचे में.. ज़रा पाकिस्तानी नाटकों को देखिये.. जिंदगी चैनल पर प्रसारित होते हैं.. उन नाटकों में लड़कियाँ स्कूल, कॉलेज, युनिवर्सिटी जाने की लड़ाई लड़ती हैं.. उन नाटकों के घरों में स्टडी रूम हैं, तलाक़ जैसे मसलों पर सवाल उठाते हैं.. उन नाटकों के पात्रों की डायलॉग डिलीवरी देखिए.. वो नाटक साहित्यिक कहानीकारों, और नाटककारों की स्क्रिप्ट पर आधारित हैं.. जिंदगी गुजार है, कितनी गृह बाक़ी हैं, धूप छांव, मात, शहरे जिंदगी, दाग़, थकन, काश हमारे यहां भी स्टार पलस कलर्स जैसे चैनलों पर ऐसे नाटक प्रसारित होते जिनसे सुधार होता.. साहित्यकारों की कमी नहीं है हिन्दुस्तान में और वो लिख भी रहे हैं मगर भूमंडलीकरण पूंजीवादी व्यवस्था के नीचे दब जाते हैं हम लोगों की दृष्टि में भी कमी है सुंदरता वस्तु में नहीं दृष्टि में होती है... जब हम ही नज़रें बंद किए बैठे हैं दिलों में नफरत लिए बैठे हैं तो इसमें साहित्य और साहित्यकार का क्या दोष?
मेहज़बीं
जगदंबा विहार, वैस्ट सागर पुर, नई दिल्ली
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